Friday, 3 February 2017

माँ नर्मदा की कहानी उन्ही की जुबानी

हमारा देश भारत आज जैसा है वैसा पहले ना था, आज जहाँ हिमालय है वहाँ करोड़ो वर्षो पहले बड़ा समुद्र था। इसी तरह आज जहाँ मै हूँ वहां करोड़ो साल पहले अरब सागर का एक हिस्सा हुआ करता था, इसीलिए तो मेरी घाटी में दरियाई घोड़े, भेंसे आदि समुद्री पशुओं के जीवाश्म मिलते है। उम्र के हिसाब से मै गंगा से बड़ी हूं। जब गंगा नही थी तब मैं थी। मेरे तट पर मोहनजोदड़ो या हड़प्पा जैसे प्राचीन नगर नही रहे और रहे भी कैसे मेरे दिनों तट पर दंडकारण्य जैसे घने जंगल हुआ करते थे। 
तपस्वियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा तट पर ही करना चाहिए, ऐसे ही एक तपस्वी ने मेरा नाम रेवा रख दिया। रेव मतलब कूदना। मै हूं ही चंचल, उछलना-कूदना मेरे स्वभाव मै ही है, तभी तो चट्टानों से उछल-कूद करती रहती हूँ। एक अन्य ऋषि ने मुझे नर्मदा नाम दिया।।
मै भारत की प्रमुख सात नदियों में से एक हूं। पुराणों में जितना मेरे बारे में लिखा गया उतना किसी और नदी के बारे में नही लिखा। स्कन्दपुराण का रेवा खण्ड तो पूरा मुझको ही समर्पित है। पुराणों में उल्लेख है कि जो पूण्य गंगा में स्नान से मिलता है वो मेरे दर्शन मात्र से ही मिलता है। भारत की अधिकांश नदियां पूर्व की ओर बहती है पर मै पश्चिम की ओर बहती हूं। मेरे विवाह के समय सोनभद्र (सोन नद) से नाराज होकर विवाह न करने का संकल्प लेकर पश्चिम की ओर चल दी और सोन लज्जित होकर पूर्व की ओर चला गया। मै चिरकुमारी कहलाई इसलिए भक्त मुझे अत्यंत पवित्र मानकर मेरी पूजा करते है। मेरी परिक्रमा जो नंगे पैर होती है जिसे करने में 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन का समय लगता है करते है।।
संघर्षो में रास्ता बनाना कोई मुझसे सीखे,। अमरकंटक से जो एक बार चली तो पहाड़ो को काटती, घाटियों को पार करती, वनों में रास्ता बनाती, पथरीले पाटो को चीरती हुई चलती जाती हूँ। ओम्कारेश्वर जैसे पवित्र स्थल और महेश्वर जैसे प्रसिध्य घाट मेरे तट पर ही है। 
मेरे मुहाने पर बसा भरूच जो कभी पश्चिम भारत का बड़ा बंदरगाह हुआ करता था, व्यापारियों की भीड़ लगी रहती थी आज वो वीरान है। यही मै अरब सागर की खम्भात की खाड़ी में मिलती हूं, याद आया मुझे की जब मै अमरकंटक से चली थी तब छोटी सी थी इतनी छोटी की कोई बच्चा भी कूद कर पार करले पर यहाँ मेरा पाट 20 कि. मी. का है,यह तय करना यहाँ मुश्किल है कि कहाँ मेरा अंत है और कहाँ समुद्र का प्रारम्भ।।
परन्तु मै अब पहले जैसी नही रही, मेरे किनारे के वन काट दिए गए, पक्षियों का कोलाहल बंद हो गया, बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां बन गई जिनका गन्दा पानी मुझमे छोड़ा जाता है, बाँध बनाकर मेरा पानी रोका गया, इन सबसे मुझे बहुत बुरा लगता है ओर लगे भी क्यों ना मै स्वछन्द विचरण करने की आदी हो चुकी हूँ इस कारण कभी कभी गुस्से में उफ़न भी जाती हूँ पर फिर शांत भी हो जाती हूँ, आखिर माँ हुआ ना, माँ कैसे अपने बच्चों पर गुस्सा करेगी, पर बच्चों की भी जिम्मेदारी है कि माँ को संभाले, उसको साफ-स्वच्छ रखे, गंदगी से दूर रखें वरना मै भी कब तक बच्चो का ध्यान रख पाऊँगी।।
एक संकल्प आप आज कर लो की मेरा और मेरे जैसी बाकी सभी माँओ (नदियों) का ध्यान रखोगे उन्हें गन्दा नही करोगे।

-  पवन सिंह "अभिव्यक्त"
 मो. - 09406601993

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